जैसेजैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, इस बार बातें सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की कम हो रही हैं, विरोधी दलों की चर्चा ज्यादा होने लगी है. सुर्खियों में अब मायावती और अखिलेश का गठबंधन, कांग्रेस, ममता बनर्जी, डीएमके आदि छाने लगे हैं. भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री अब सिर्फ उद्घाटनों, शिलान्यासों और सम्मेलनों में भाषण करने की औपचारिकताएं निभाने में लगे हैं. सरकार के कई मंत्रियों और भाजपा अध्यक्ष की बीमारियां जरूर सुर्खियां बनी हैं.

भाजपा ने जो संगठित चेहरा 2014 से 2017 तक दिखाया था, अब बिखरने लगा है. यह अच्छा नहीं है. जनता की पसंद लोकतंत्र में बदलती रहती है पर मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों को हर स्थिति में अपना संतुलन और सामर्थ्य बनाए रखना होता है. यह देश के लिए जरूरी होता है. सत्तारूढ़ पार्टी को अंत तक अपनी हिम्मत नहीं खोनी चाहिए चाहे उस के काम सही हों या गलत.

यह ठीक है जब कई पराजयों का सामना एकसाथ करना पड़े तो लोग हताश होने लगते हैं. पर, फिर भी हजारोंलाखों लोग उस नेता से जुड़े होते हैं और वे मैदान छोड़ कर न भाग जाएं, यह देखना नेताओं का ही काम होता है.

नरेंद्र मोदी ने यह गलती की कि उन्होंने पूरी जिम्मेदारी और सत्ता अपनेआप में केंद्रित कर ली क्योंकि भाजपा 2014 का चुनाव केवल उन के बल पर जीती थी. बाकी सब मोहरे बन कर रह गए थे. यह पार्टी या सरकार चलाने का सब से गलत तरीका है, पर दुनियाभर में ऐसा ही होता है.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, ब्रिटेन में टेरेसा मे और जरमनी में एंजेला मर्केल की हालत नरेंद्र मोदी की तरह है. इन को कई फ्रंटों पर लड़ना पड़ रहा है और जीत कम ही मिल रही है. ट्रंप मैक्सिको और अमेरिका के बीच वाल बनाने के पीछे ऐसे पड़े हैं जैसे मोदी मंदिर, गाय और जीएसटी के. टेरेसा मे ब्रैक्सिट को ले कर जिद कर रही हैं, एंजेला मर्केल यूरोप में एकछत्र राज चाहती हैं.

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