सुप्रीम कोर्ट ने पुरी के जगन्नाथ मंदिर में गैरहिंदुओं को भी प्रवेश दिए जाने की सलाह दी है. उस ने ऐसा आदेश नहीं दिया है कि मंदिर के प्रबंधन को यह सलाह माननी जरूरी है. सवाल यह उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को इस पचड़े में पड़ने की जरूरत थी. जगन्नाथपुरी के मंदिर, किसी मसजिद या गुरुद्वारे में भक्तलोग अंधश्रद्धावश ही जाते हैं. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अगर गए थे तो यही सोच कर कि वे पद पा कर अब दलित होने का धब्बा खो चुके होंगे और उन का स्वागत होगा पर सुप्रीम कोर्ट उन के प्रवेश को भी सुनिश्चित नहीं कर पाई.

धर्मनिरपेक्ष राज्य में अंधश्रद्धा के मामलों में न तो सरकारों को पड़ना चाहिए और न अदालतों को. कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी हो, तो बात दूसरी है, वरना उन का दखल हमेशा उलटा पड़ता है. सरकार ने सिख मामलों में एक बार जम कर दखल दिया था जिस का नतीजा निकला कि खालिस्तान आंदोलन खड़ा हो गया. राजीव गांधी ने शाहबानो और राममंदिर के मामलों में दखल दिया. इस का नतीजा यह रहा कि बाबरी मसजिद तोड़ दी गई और भारतीय जनता पार्टी को धर्म पर आधारित सरकार बनाने का रास्ता मिल गया.

जगन्नाथपुरी मंदिर में अन्य धर्मों व नीची जातियों के लोग नहीं जा पाते, तो इस से वे अपनी जेब बचाते ही हैं. दलित अगर वहां जाएंगे तो पाएंगे कुछ नहीं, बल्कि जो उन की जेब में होगा उसे भी वे चढ़ा आएंगे. दूसरे मंदिरों की तरह इस मंदिर में भी चढ़ावे पर जोर है. मंदिर में प्रवेश करते ही पंडे घेर लेते हैं, जो कभी प्रसाद खरीदने के नाम पर तो कभी दर्शन कराने के नाम पर वसूली करते हैं.

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