भारतीय जनता पार्टी की नजर में राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल की इमेज किसी मसखरे नेता जैसी है. देश के सब से बडे़ प्रदेश में 5 साल मुख्यमंत्री की कुरसी संभालने वाले अखिलेश यादव को भाजपा ने कभी पूरा मुख्यमंत्री ही नहीं माना. चुनावी रणनीति में इन तीनों ने अब भाजपा के सामने चुनौतियों के पहाड़ खडे़ कर दिए हैं. इस से भाजपा के त्रिलोक विजयी की छवि दांव पर लग गई है. अपनी छवि को बचाने के लिए भाजपा ने परिवारवाद से ले कर दलबदल की नीतियों तक को अपना लिया है. इस से भाजपा को अपने अंदर से ही चुनौती मिलने लगी.

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर के विधानसभा चुनाव केंद्र की भाजपा सरकार के लिए चुनौतियों से भरे हैं. चुनौतियों का आभास भाजपा को भी है. इसलिए अब वह अपने सारे सिद्धांतों को दरकिनार कर हर समझौता कर रही है. परिवारवाद से ले कर दलबदल तक के सभी समझौते उस ने कर लिए. भाजपा में जहां पहले सभी फैसले पार्टी के संगठन द्वारा लिए जाते थे, वहीं अब भाजपा हाईकमान अकेले फैसले लेने लगा है. नोटबंदी से ले कर चुनावी रणनीति तक में आपसी विचारविमर्श नहीं दिखा.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जिस तरह के फैसले भाजपा ने टिकट वितरण में किए हैं उन से पार्टी में व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के सामने केवल तब की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ही थी. वह चुनाव असल में भाजपा की जीत के लिए नहीं, कांग्रेस की हार के लिए याद रखा जाएगा. कांग्रेस ने 10 साल के राजकाज में जनता को राहत देने वाले फैसले कम किए पर भ्रष्टाचार खूब किया. सरकार ने अगर अच्छे काम किए भी तो उन को जनता तक पहुंचाया नहीं जा सका. भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने प्रचार और भाषण की जोरदार शैली के बल पर जनता के कांग्रेसविरोध को अपनी ओर करने का काम किया था. दूसरी पार्टियां बिखरी हुई थीं. ऐसे में भाजपा ने मौके का फायदा उठाया और बहुमत से जीत कर सरकार बना ली.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...