लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

जब अंगरेज पहली बार भारत आए थे, तब वे यहां का गौरव देख कर दंग रह गए थे. चालाक अंगरेजों ने यह भी देखा था कि भारत के लोगों की धर्म में अटूट आस्था है. हर गांव में एक मंदिर और वह भी एकदम भव्य. उसी गांव के एक छोर पर उन्होंने मसजिद देखी और तब अंगरेजों को सम झते देर न लगी कि भारत में कई धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं.

अब हम आजाद हैं और बहुत तेजी से तरक्की भी कर रहे हैं, पर सवाल यह है कि क्या एक शहर में इतने ज्यादा मंदिर या मसजिद, गुरुद्वारा या चर्च की जरूरत है या हम महज एक दिखावे के लिए या सिर्फ अपने अहंकार को पालने के लिए इन्हें बनाए जा रहे हैं?

सिर्फ एक धर्म के लोग ही ऐसा कर रहे हों, ऐसा नहीं है, बल्कि यह होड़ हर धर्म के लोगों में मची हुई है. शहर के किसी हिस्से में जब एक धर्मस्थल बन कर तैयार हो जाता है तो तुरंत ही उसी शहर के किसी दूसरे हिस्से में दूसरे धर्म का धर्मस्थल बनना शुरू हो जाता है और दूसरा वाला पहले से भी बेहतर और भव्य होता है.

धर्मस्थल बनने के बाद कुछ दिन तो उस में बहुत सारी भीड़ आती है, फिर कुछ कम, फिर और कम और फिर बिलकुल सामान्य ढंग से लोग आतेजाते हैं.

मैं अगर अपने एक छोटे से कसबे ‘पलिया कला’ की बात करूं तो यहां पर ही 17 मंदिर, 12 मसजिद और एक गुरुद्वारा है. अभी तक यहां किसी चर्च को नहीं बनाया गया है.

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