बचपन में जब कभी मैं अपने गांव जाता था तो वहां के मेरे दोस्त मुझे अकसर ही छेड़ते रहते थे कि ‘दिल्ली के दलाली, मुंह चिकना पेट खाली’. तब मुझे बड़ी चिढ़ मचती थी कि मैं इन से बेहतर जिंदगी जीता हूं, फिर भी ये ऐसा क्यों कहते हैं?

यह बात याद आने के पीछे आज की एक बड़ी वजह है और वह यह कि दिल्ली और केंद्र सरकार में दिल्ली की कच्ची कालोनियों को पक्का करने की होड़ सी मची है. वे उन लोगों को सब्जबाग दिखा रहे हैं, जो देश की ज्यादातर उस पिछड़ी आबादी की नुमाइंदगी करते हैं जो यहां अपनी गरीबी से जू झ रहे हैं, क्योंकि उन के गांव में तो रोटी मिले न मिले, अगड़ों की लात जरूर मिलती है.

पर, अब तो दिल्ली शहर भी सब से छल करने लगा है. यहां के लोगों को रोजीरोटी तो मिल रही है पर जानलेवा, फिर चाहे वे पैसे वाले हों या फटेहाल. बाजार में खाने का घटिया सामान बिक रहा है.

दिल्ली के खाद्य संरक्षा विभाग ने इस मिलावट के बारे में बताते हुए कहा कि साल 2019 की 15 नवंबर की तारीख तक 1,303 नमूने लिए गए थे. उन में से 8.8 फीसदी नमूने मिस ब्रांड, 5.4 फीसदी नमूने घटिया और 5.4 फीसदी ही नमूने असुरक्षित पाए गए. ये नमूने साल 2013 से अभी तक सब से ज्यादा हैं.

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यहां एक बात और गौर करने वाली है कि जिन व्यापारियों के खाद्य सामान के नमूने फेल हुए हैं, उन के खिलाफ अलगअलग अदालतों में मुकदमे दर्ज मिले हैं. पर यह तो वह लिस्ट है, जहां के नमूने लिए गए, लेकिन दिल्ली की ज्यादातर आबादी ऐसी कच्ची कालोनियों में रहती है, जहां ऐसे मानकों के बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता होगा.

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