उस दिन नोएडा के सेक्टर 15 से निकलना हुआ. वहां देखा कि एक रिटायर आई.ए.एस. अधिकारी के आलीशान बंगले के बाहर बहुत भीड़ लगी थी. पूछने पर पता चला कि वहां आज ब्रह्मभोज है. उस बंगले के आसपास ब्राह्मण मक्खीमच्छर की तरह भिनभिना रहे थे. भरपेट भोजन करने के बाद मोटी दक्षिणा ले कर व तिलक लगवा कर अपनी राह यह कहते हुए चल दिए कि दाता यजमान को और दे. ब्राह्मणों के चेहरे खिले हुए थे क्योंकि खाते समय थोड़ा माल अपने परिवार के लिए भी रख लिया था.

पितृपक्ष में अमीर हो या गरीब सभी के यहां यह नजारा देखने को मिलता है. जनता के लिए चाहे खुशी का मौका हो या गम का, पंडित को घर बुला कर खिलाना व दक्षिणा देना जरूरी सा है. जन्म से ले कर मृत्यु तक जितने संस्कार हैं उन में ही नहीं बल्कि गृहप्रवेश, भूमिपूजन आदि में भी ये ब्राह्मण जम कर फायदा उठाते हैं. इन सभी मौकों पर ब्राह्मणों को मुंहमांगा दान दिया जाता है.

ब्राह्मणों को दान देने का यह ढकोसला नया नहीं है तो वजह यही कि उन्होंने अपनी कमाई के इस तरीके के महत्त्व को शास्त्रों में भी जरूरी बता दिया है. हिंदू धर्म में व्यर्थ के तपों के विधान के चलते वानप्रस्थ और संन्यास के नाम पर इन पंडितों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई. त्याग, तप, भक्ति के नाम पर लाखों मुफ्तखोर भिखारी, साधु बन गए और बिना हाथपैर हिलाए मौज मारते रहे. इन के लिए हमारे धर्मग्रंथ और शास्त्र भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जिस में दान को ले कर कई तरह की व्यर्थ की उक्तियां प्रचलित की गई हैं. जैसे :

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