दलितों के सिर पर इन दिनों आरक्षण के छिन जाने का एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है. कुछ का अंदाजा है कि भाजपा पहले राम मंदिर बनाने को प्राथमिकता देगी, जबकि कुछ को डर है कि वह पहले आरक्षण खत्म करेगी और उस के तुरंत बाद ही राम मंदिर का काम होगा जिस से संभावित दलित विद्रोह और हिंसा का रुख राम की तरफ मोड़ कर उसे ठंडा किया जा सके.

पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण को ले कर अपनी मंशा यह कहते हुए जाहिर की थी कि आरक्षण विरोधी और समर्थकों को शांति के माहौल में बैठ कर इस मसले पर बातचीत करनी चाहिए, मतलब, ऐसी बहस जिस पर हल्ला मचेगा और यही भगवा खेमा चाहता है.

यह बातचीत हालांकि एकतरफा ही सही, सोशल मीडिया पर लगातार तूल पकड़ रही है जिस में सवर्ण भारी पड़ रहे हैं और इस की अपनी कई वजहें भी हैं.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार दलित बड़े पैमाने पर भाजपा की तरफ झुके थे तो इस की एक बड़ी वजह बतौर प्रधानमंत्री पेश किए गए खुद नरेंद्र मोदी का उस तेली साहू जाति का होना था जिस की गिनती और हैसियत आज भी दलितों सरीखी ही है.

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तब लोगों खासतौर से दलितों को लगा था कि भाजपा केवल सवर्णों की नहीं, बल्कि उन की भी पार्टी है जो उस ने तकरीबन एक दलित चेहरा पेश किया.

इस के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ने दलित प्रेम का अपना दिखावा जारी रखा और तरहतरह के ड्रामे किए, जिन में उस के बड़े नेताओं का दलितों के घर जा कर उन के साथ खाना खाना और दलित संतों के साथ कुंभ स्नान प्रमुख थे.

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