अपनी सासूजी और पत्नीजी के साथ सुबह का नाश्ता कर रहे थे. सासूजी अर्थशास्त्री चाणक्य की चर्चा कर रही थीं कि हमारे एक मित्र मनोजजी मुंह लटकाए आते दिखलाई दिए. सासूजी ने उस का पिचका, उतरा चेहरा देखा तो आश्चर्य हुआ क्योंकि हमेशा हंसनेबोलने वाला मनोज का चेहरा ऐसा कैसे हो रहा था. पत्नीजी ने उस से नाश्ता करने को कहा तो उस ने थोड़ी नानुकुर करने के बाद सपाटे से फकाफक खाना शुरू कर दिया. लगा, मानो महीनेभर से वह भूखा हो. खा लेने के बाद उस के चेहरे पर थोड़ी राहत दिखाई दी. उस ने मुंह पोंछते हुए कहा, ‘‘इन दिनों बहुत मंदी का दौर चल रहा है.’’

‘‘किस का?’’ पत्नीजी ने प्रश्न किया.

‘‘देश का भी और मेरा भी,’’ उस ने कहा.

सासूजी ने एक कटीली, जहरीली मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘जब तक मूर्ख जिंदा है, बुद्धिमान भूखे नहीं मर सकते.’’

‘‘क्या मतलब मम्मीजी?’’ मनोज ने आश्चर्य से प्रश्न किया.

‘‘मैं कह रही थी अगर आप के पास बुद्धि है तो केवल आप ही क्या, आप का पूरा परिवार भी भूखा नहीं मर सकता है,’’ सासूजी ने रहस्यमय ढंग से अपनी बात कही.

‘‘वह कैसे मम्मीजी?’’

‘‘अरे बेटा, इस देश में आप फटे कपड़े पहने हो और तिलक लगा लो तो भूखे नहीं मर सकते. यहां पत्थर को एक रुपए का सिंदूर पोत कर भगवान बनाया जा सकता है. ऐसे में दक्षिणा से पूरा परिवार बिना काम के पेट भर सकता है और तुम कह रहे हो कि मंदी का दौर चल रहा है?’’

‘‘आप ने कहा तो बिलकुल सच है लेकिन मैं इस मंदी से कैसे उबरूं?’’ मनोज का दीनहीन स्वर गूंजा.

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